बेगूसराय : गिरिराज सिंह , तनवीर हसन या कन्हैया कुमार ?

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मेरी समझदारी में लोकसभा चुनाव 2019!

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किसी जमाने में सम्पूर्ण चुनाव इंदिरा गांधी के पक्ष में या विपक्ष में होता था!देश की राजनीति पर एक व्यक्ति पूरी तरह से हावी था।ठीक वैसे ही 2019 का चुनाव पूर्ण रूपेण नरेंद्र मोदी के पक्ष में है या फिर विपक्ष में !पूरी तरह से सिर्फ एक व्यक्ति इस चुनाव के केन्द्रबिन्दु में है, जैसे कि पूरी की पूरी फिल्म एक हीरो या यदा-कदा एक विलन के आस-पास घूमती है। फिल्म कोई खास हो या न हो , अमिताभ बच्चन या फिर रजनीकांत फिल्म में हों तो एक औसत फिल्म भी हिट हो जाएगी।यानि कि व्यक्ति प्रबल है, मुद्दा गौण है?हीरो सर्वेश्वर है, कहानी गौण है।कोई कुछ कहे, न कहे , या तो मोदी से अगाढ़ प्यार है या फिर नफरत।

मैं भारत के बिहार राज्य में बेगूसराय जिले का नागरिक हूँ। सालों से स्पष्ट कारणों से अपने राज्य से बाहर रहा, लेकिन अब विगत 7 वर्षों से इस जिले का स्थायी तौर पर एक नागरिक हूँ। मैंने इस जिले की राजनीति को बड़े ही करीब से पिछले 7 वर्षों से देखा है , परंतु बिहार की राजनीति को पिछले 25 वर्षों से देख और समझ रहा हूँ।खैर इतिहास को फिलहाल छोड़ते हैं और वर्तमान पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं।

बेगूसराय से तीन प्रत्याशी मैदान में हैं, भारतीय जनता पार्टी और जनता दल यूनाइटेड से गिरिराज सिंह, राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस से तनवीर हसन साहब और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से JNU छात्र संघ के बहुचर्चित पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार।

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कई लोगों ने मुझसे यह प्रश्न किया कि मैं अपना वोट किसे दूंगा, कि मैं तटस्थ हूँ, कि मेरा इस मुद्दे पर कोई स्टैंड नहीं?
चलिए मैं अपना स्टैंड आज स्पष्ट करता हूँ। मैंने तटस्थ रहना आज तक नहीं सीखा है। आशा करता हूँ कि बेगूसराय के प्रबुद्ध जागरूक नागरिक जो किसी विचारधारा के गुलाम नहीं, किसी भी राजनीतिक दल के समर्पित कार्यकर्ता नहीं हैं वे , तमाम मतभेदों के बावजूद, मेरे तर्क संगत दलील जरूर समझेंगे।

चुकि ये लोकसभा का चुनाव है अतः इसके परिणाम देशहित से जुड़े हैं। अतैव मैं पहले उन दो राष्ट्रीय पार्टियों की बात करूँगा जिनकी देशव्यापी पहचान और उपस्थिति है और जिनके इर्द-गिर्द ही इस चुनाव के परिणाम घूमेंगे। ये राष्ट्रीय पार्टियां हैं कांग्रेस और भाजपा।

अब पहले कांग्रेस की बात करते हैं। पिछले दो दशकों से कांग्रेस बिहार में राजद की कठपुतली है। अतः बिहार में कांग्रेस की पहचान राजद में सन्निहित है, उसकी अपनी कोई पहचान नहीं, अपने दम पर अकेले पूरे राज्य में एक सीट भी कांग्रेस जीतने में असमर्थ है।अतः चलिए कांग्रेस की जगह उसके आका राजद की बात करें। 1990 में कई वर्षों के कांग्रेस के भ्रष्ट कुशासन से तंग आकर लोगों ने विश्वनाथ प्रताप सिंह के जनता दल में अपनी आस्था व्यक्त की। नतीजा हुआ उनके पसंदीदा लालू यादव का राजनीतिक पटल पर उदर्भाव, बिहार के मुख्यमंत्री बने लालू यादव। उनके मुख्यमंत्री बनने में सारी जातियों और मजहबों ने भूमिका निभाई थी। लेकिन 15 वर्षों के अपने कार्यकाल में वे बिहार के यादवों और मुसलमानों के निर्विवाद नेता के रूप में उभरे। एक बड़े जनमानस के लोकप्रिय नेता के रूप में अपनी पहचान बनाई। खुद जब भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे अपनी अक्षम, नाकाबिल पत्नी को सत्ता और इसके साथ राज्य की 8 करोड़ जनता का भाग्य सौप एक अभद्र और घिनौना मजाक किया। 15 वर्षों के लालू शासन ने बिहार को गर्त में मिला दिया। अपहरण, गुंडागर्दी, कुव्यवस्था, कुशासन ने बिहार को विश्व का सबसे पिछड़ा और बदनाम क्षेत्र बना दिया। ‘बिहार’ और ‘बिहारी’ अपशब्द और तिरस्कार के पर्याय बने। बिहार को गर्त में मिलाने में कांग्रेस ने लालू जी की व्यक्तिगत पारिवारिक पार्टी राजद का भरपूर सहयोग दिया, इतना कि अपनी पहचान राजद में विलय कर दी।

कुशासन, भ्रष्टाचार और अराजकता के इस माहौल से तंग आकर बिहार के मतदाताओं ने 2005 में लालू जी के राजद और कांग्रेस के गठबंधन को ठीक उसी तरह से सत्ता से बेदखल कर दिया जैसे कांग्रेस को लालू जी के जनता दल ने किया था 1990 में। इस तरह से कांग्रेस 1990 तक अपने दम पर और फिर लालू जी के राजद का पूछ पकड़कर लगभग 50 वर्षों तक बिहार में सत्ता पर काबीज रही और बिहार निरंतर पतनशील। इस तरह से 2005 में लालू और कांग्रेस को हराकर आई नीतीश कुमार की जदयू और भाजपा गठबंधन की सरकार।नीतीश जी के राज में बिहार लगातार 10 से 11 प्रतिशत के GDP ग्रोथ रेट से तीव्र गति से बढ़ा। राज्य में कानून का राज्य लौटा, बिजली, सड़क इत्यादि क्षेत्रों में अप्रत्याशित सुधार हुआ। राष्ट्रीय पटल पर बिहार की छवि काफी सुधरी। लेकिन फिर नीतीश जी की महत्वाकांक्षा उन्हें दगा दे गई। BJP का साथ छोड़ लालू जी के राजद का दामन थाम लिया। 2015 का विधानसभा चुनाव लालू जी के साथ जीतने के बाद नीतीश जी ने लगभग दो- ढाई वर्षों तक राजद के साथ मिलकर सरकार चलाया। इस दौरान बिहार का GDP ग्रोथ रेट फिर से नीचे गिर गया(चेक कर के देख लें), बिहार की विकास गाथा फिर से डगमगाने लगी। तभी नीतीश जी की बुद्धि या फिर अवसरवादिता ही कहें ,ने उनको फिर से भाजपा का दामन थामने को मजबूर किया। बिहार की विकास गाथा फिर से पटरी पर लौट आयी, बिहार फिर से 9 से 10 प्रतिशत के GDP ग्रोथ रेट से तरक्की करने लगा। इन दिनों तो गावों में 22 से 24 घंटे बिजली रहती है, लालू जी के समय गाँव तो छोड़िए, शहर और राज्य की राजधानी पटना का क्या हाल था, याद है या भूल गए?
अतः सारे साक्ष्य राजद और उनके गोद में खेलने वाली कांग्रेस के खिलाफ हैं। इन दोनों पार्टियों ने जाति और मजहब की ताबड़तोड़ राजनीति कर बिहार को एक भ्रस्ट, पिछड़ा,अराजक और हिंसक राज्य बना दिया। ये दो पार्टियां जब खुद को धर्मनिरपेक्ष कहती हैं तो हँसी आती है।

अतः राष्ट्रीय पार्टियों के चुनाव में बिहार के वोटरों केलिए भाजपा कांग्रेस से बेहतर दावेदारी प्रस्तुत करती है। यही कारण है कि एक अच्छे , मृदुभाषी, सभ्य, सौम्य, ज्ञानी और बेदाग प्रत्याशी होने के बावजूद तनवीर हसन साहब का महागठबंधन का योद्धा होने की वजह से मेरा मत नहीं जाएगा। शायद वे कौरवों की सेना में महारथी कर्ण हैं।

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अब बचे CPI से कन्हैया कुमार!

व्यक्तिगत तौर पर मैं उनके डिबेटिंग स्किल्स,शब्दों की गुत्थियों से बुने उनके मायाजाल का कायल हूँ। लेकिन फिर बात वहीं आकर रुक जाती है।कम्युनिस्ट पार्टी के सिद्धांत, कार्यकलाप और देश केलिए उनके दृष्टिकोण सब मेरी समझ से परे हैं। कम्युनिस्ट पार्टी कभी भी प्रजातंत्र, संविधान, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इत्यादि में विश्वास नहीं करती। बंगाल में मैंने कम्युनिस्टों की तानाशाही को 8 वर्षों तक अपनी आंखों से देखा है। राज्य के सारे गुंडे कम्युनिस्ट के कैडर हुआ करते थे, क्या खूब दादागिरी थी उनकी?इसी का परिणाम है कि कम्युनिस्ट पार्टी धीरे-धीरे पूरे विश्व और इस राष्ट्र से पतनशील है। कागज पर कम्युनिस्टों के सिद्धांत बड़े ही अच्छे लगते हैं, उनकी विचारधारा अनुभवहीन कच्चे नवयुवकों के मन-मस्तिष्क को अतिशय प्रभावित करती हैं। लेकिन प्रैक्टिकल जीवन में ये फिसड्डी हैं। बंगाल जैसे विकसित राज्य की इन्होंने दुर्गति कर दी। अगर कन्हैया जीत कर भी जाते हैं तो क्या करेंगे?

अगर भाजपा की सरकार बनेगी तो इनके 5 वर्ष मोदी को गाली देने में व्यतीत होंगे। और अगर कांग्रेस की सरकार बनी तो ये उनकी ही गोदी में जाकर बैठ जाएंगे जिनके खिलाफ अभी ये चुनाव लड़ रहे हैं। दोनो ही सूरत बेगूसराय के हित में नहीं। जेल में सजा काट रहे लालू जी का हाथ पैर जोड़ने, अनुनय-विनय करने में इन्होंने कोई कोड़-कसर नहीं छोड़ा, लेकिन लालू जी के कानों पर जू तक नहीं रेंगा, छोड़ दिया उन्हें शैला रशीद, ओमर खालिद, स्वरा भास्कर, जिग्नेश मवानी, जावेद अख्तर , कश्मीरी समर्थकों , JNU में छात्र राजनीति करने वाले नवयुवकों के हवाले। उनकी पार्टी का कोई वजूद नहीं, कोई उपलब्धि नहीं। व्यक्तिगत तौर पर इन्होंने आज तक एक आम छात्र की तरह एक PhD की है। बहुत सारे करते हैं पीएचडी इस देश में। और इनकी क्या उपलब्धि है?

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इनका नाम और इनकी प्रसिद्धि JNU के उस विवादित राष्ट्र विरोधी नारे से जुड़ा है। ये उसमें संलिप्त थे या न थे ये तो जाँच का विषय है। लेकिन आज जो भी वे हैं इन्हीं राष्ट्रविरोधियों के बदौलत हैं। न JNU में ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ का नारा लगता , न ही कन्हैया कुमार का जन्म होता। और ये क्या?JNU की छात्र राजनीति से निकलकर सीधे लोकसभा का चुनाव?भाई पहले विधानसभा का लड़ो, अपने आपको अपने कार्य से साबित करो, फिर लोकसभा के प्रत्याशी बनो।इसी CPI में शत्रुघ्न बाबू, राजेन्द्र बाबू जैसे हस्ती हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन इस पार्टी को समर्पित कर दिया। लेकिन इन सबको बाईपास करके सीधे JNU से निकले हुए एक गैर अनुभवी नवयुवक को लोगों के सामने किस बुनियाद पर इन्होंने सामने कर दिया?कन्हैया कुमार को अगर “भारत तेरे टुकड़े होंगे” के राष्ट्रविरोधी नारे से अलग कर लेते हैं तो क्या बचता हैं उनमें?हां, उनपर राष्ट्रद्रोह का आरोप लगाने से मैं तब तक परहेज करूँगा जब तक उनपर लगे सारे आरोप अदालत में साबित न हो। लेकिन एक बात तो स्पष्ट है, ऐसे नारे लगाने वाले या इनसे सहानुभूति रखने वाले कई महानुभाव इस वक्त कन्हैया के समर्थन में बेगूसराय की धरती पर जोर-शोर से प्रचार-प्रसार कर रहे हैं।

हाँ, कन्हैया के बेगूसराय से चुनाव लड़ने से लोगों का भरपूर मनोरंजन जरूर हो रहा है। पूरे देश से, कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक से, एक से बढ़कर एक ऑडी, मर्सेडीज़ में घूमने वाले समाजवादी , समाजसेवी या फिर ‘अर्बन नक्सल’ उनके समर्थन में आ धमके हैं। डफली की गूंज, आजादी के वे गाने , दिलों को झूमने पर बिवस कर दे रहे हैं। लेकिन ये सब ड्रामा और नौटंकी से न तो देश की तरक्की होगी और न ही बेगूसराय की। नारे देने और गाने से न तो देश के टुकड़े होंगे और न ही भुखमरी और सामंतवाद से आजादी मिलेगी।आखिर कम्युनिज्म एक जुनून है, एक नशा है, और नशे में सब अच्छा लगता है।नशा टूटते ही ,होश आते ही जैसे ही इस कठोर ,निर्दयी जीवन से साक्षात्कार होता है कम्युनिज्म कागज़ के पन्नों पर एक कविता बनकर रह जाती है।कन्हैया के व्यक्तित्व से मुझे गुरेज नहीं लेकिन उनकी कन्फ्यूज्ड विचारधारा, उनसे जुड़े विवाद जिसकी उत्पत्ति उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व, उनकी पहचान है, उनकी पार्टी जिसका कोई भविष्य और स्पष्ट नीति नहीं, उनमें लोकसभा में बेगूसराय का प्रतिनिधित्व करने में राजनीतिक अनुभव की कमी, और जीतने के बाद आने वाले दिनों में उनका कांग्रेस के साथ ही मिल जाने का एकमात्र विकल्प मुझे उनसे दूर करती है।
हमाम में सब नंगे हैं।
कन्हैया कोई अलग राजनीति नहीं कर रहे।राजनीति में फलने फूलने केलिए वे भी किसी आम साधारण राजनेता की तरह कोई भी समझौता/ कोम्प्रोमाईज़ करने को तैयार हो गए।सजा काट रहे लालू जी के चरणों मे बैठ गए, पप्पू यादव से गले मिल लिए, कांग्रेस में उनको कोई खोट नहीं दिखता इत्यादि अनेक।
जहाँ तक साम्प्रदायिकता और जातिवाद का सवाल है सारी पार्टियां इसमें शामिल है। कोई भी पार्टी भारत में इनसे अछूता नहीं। न भाजपा, न कांग्रेस, न जदयू, राजद तो बिल्कुल ही नहीं। अतः मेरे पास जो तीन विकल्प हैं उनमें जो इन सारे मापदण्डों पर सबसे बेहतर हैं उनमें भाजपा के गिरिराज सिंह ही हैं। इसलिए नहीं कि वे कोई संत श्रेष्ठ पुरुष हैं, बल्कि इसलिए कि जीतने पर अगर मोदी सरकार बनी तो वे कैबिनेट मिनिस्टर जरूर बनेंगे और ये बेगूसराय की प्रगति और विकास के लिए अच्छा होगा। हमारे पास इन सारे विकल्पों में जो सबसे कम बुरा विकल्प है वे हैं गिरिराज सिंह जी।अतः उनकी समस्त खामियों के बावजूद उनको अपनाना मेरी मजबूरी है।

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राष्ट्रीय स्तर पर कौन ज्यादा सक्रिय और कारगर होगा?

आप क्या सोचते हैं?

आपको आदर, स्नेह और सम्मान।

डॉ निशांत रंजन।

https://www.facebook.com/nishant.ranjan.12935

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