नोबा रांची का सन्देश : पहले अपनापन को जगाएँ , जिम्मेदारी स्वतः आएगी !

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कोई कोई नन्हा बच्चा स्कूल के शुरुआती दिनों में हर रोज कुछ न कुछ सामान भूलकर घर आता  है।  कभी पेंसिल , कभी पानी बॉटल तो कभी छोटा सा शार्पनर। पेरेंट्स रोज परेशान। जब कुछ नहीं सूझता तो उस मासूम का  कभी कान अमेठा जाता है तो कभी ….  समय के साथ ये लक्षण इसलिए अपनेआप गायब हो जाता है क्यूंकि बच्चे में अपने सामान के प्रति sense of belonging (एक प्रकार का अपनापन) विकसित हो जाता है।  ऐसे में वो पेरेंट्स बाज़ी  मार जाते हैं जो विकल्पहीन बनकर कान  अमेठने के बजाय  sense of belonging को कैसे विकसित करें , इस बात को समझना चाहते हैं ।

जब आप कोई समूह बनाते हैं , उद्देश्य एक एक व्यक्ति की शक्ति को मिलाकर collective force बनाना होता है।  collective force की   बुनियाद बनती  है sense of belonging. पहले सूमह के सदस्यों में belonging को जगाएँ फिर आगे आकर Responsibility खुद से लेने लगते हैं लोग ।

अपनापन से जुड़ाव फिर जुड़ाव से आत्मीयता ये अलग अलग चरण  हैं । कल नोबा रांची होली मिलन में अपनापन (sense of belonging) और आत्मीयता का बहुरंगा गुलाल दिख रहा था।  अपनापन यानि  प्रथम चरण , आत्मीयता अंतिम चरण। एक तरफ अंकुर (प्रथम चरण ) तो दूसरी तरफ परंपरा (अंतिम चरण ) । अपनापन में संवेदनशीलता तो आत्मीयता के आइने में एक मिजाज दिख रहा था. मौका था गुलाल का ,  मिज़ाज पर पहले से ही चढ़ा था  गुलाल ! आगंतुकों से स्वीकृति के लिए जब आयोजकों के द्वारा calling की गयी थी तभी फ़ोन पर ही गुलाल दिख गया था !  शुरू के बैच के कई वरीय अग्रजों ने कहा था  कि  “मैं जरूर आऊँगा , मुझे कुछ बात रखनी है। परम्परा में कुछ अच्छी चीज़ें भी हैं , वो बचनी चाहिए।” आश्रमव्यवस्था को बदलने हेतु  नेविस के नए प्रयोग की ओर  ईशारा  साफ था।  होली मिलन  आयोजन  में आते के साथ  नेविस के संस्थापक सभापति हमारे आदरणीय अग्रज सुशील चौधरी (64 बैच , पूर्व मुख्य सचिव GOJ) ने सचिव नोबा रांची से पूछा ” प्रस्ताव दीजिये जिस पर दस्तख़त करना है। ” साथ में कई और गणमान्य अग्रज भी इसी स्वर में। गुलाल का  एक रंग तो पहली नज़र में ही झलक गया।

कुछ पहेलियाँ शायद  इस उम्र में भी आप नहीं सुलझा पाएँ हों जैसे संसद में कुछ संभ्रांत भी तो होते हैं फिर भी मछली मण्डी जैसा क्यों बन जाता है। श्रवण शक्ति बुनियाद है संवाद की। ये  यदि उचित स्तर का  नहीं रखते हों आप फिर, या तो दूसरे के विरोधाभासी विचार  को सुनेंगे नहीं  , या मैदान में आप आएँगे  ही नहीं। नहीं सुनेंगे  या मैदान से हटेंगे  दोनों ही स्थितियों में संसद/ सोशल मिडिया में मछली मण्डी !  प्रोफेशनल लाइफ में बुलंदियों तक पहुंचने वाले एक छोटे से संवादहीनता  के फासले को कवर नहीं कर  पाते।  चलिए ! ये ना  हों तो मछली मण्डी की रौनक कौन बनेंगे  !

उम्मीद के अनुसार सभापति नेविस या नेविस से जुड़े लोग , आयोजन में आए ही नहीं ।  फलतः नेविस और नोबा के बीच संवाद जैसा विषय एक अनौपचारिक चर्चा  तक भी नहीं पहुँच सका ।  

ये तो था आत्मीयता का वो गुलाल जो लोग साथ लाये थे !  अब अपनेपन का ..

नोबा रांची में पिछला  कुछ  आयोजन बिल्कुल  अलग तरीके से करने  कोशिश हुयी । अलग अलग प्रारूप के कार्यक्रम हुए तो अलग अलग तरीके से मेजबानी का भी साथ मिला। इस बार होली मिलन के कार्यक्रम की मेज़बानी के लिए स्वेच्छा से आगे आए 1979 बैच के बंधुगण। एक बड़ी बात दिखी जैसे ही कुछ ऊँच नीच होता दिखे , एक साथ कई चेहरों पर एक समान  तनाव की लकीरें ! कमाल का Collective Force . 125 लोगों के लिए भोजन व्यवस्था का फरमान था।  होली के समय कई लोग बाहर  चले जाते हैं , गत  वर्ष भी  यही संख्या थी।  लेकिन इस बार 200 से अधिक की संख्या में लोग आए।  नतीजन “घ ” …! ऐसे में हर  व्यक्ति का मुँह किसी तरह जूठा किया जाए इस भाव के साथ 1979 बैच के बंधुगण लगातार सक्रिय बने रहे।  कई बार जीतने  से गहरा अर्थ और आनंद , खेलने का स्पिरिट  दे जाता है। और आप उसी को दिल में सहेजे सहेजे  आगे बढ़ जाते  हैं। 1979 बैच के बंधुगण जहाँ sense of belonging से भरकर जिम्मेदारी ले रहे थे , वहीं हमारे कई आदरणीय वरीय अग्रज “पहले आप तो पहले आप ” . और तो और  आयोजन के बिल्कुल  अंत तक रुक कर , एक एक का ख्याल रखने के लिए मेज़बान बैच के अतिरिक्त डॉ प्रभात कुमार सिन्हा (61 ), सुशिल चौधरी (64 ) , सुधीर मोहन झा (66 ) , मनीष रंजन (86 ) जैसे कई बंधु रुके थे।  sense of belonging (1979 बैच )  ने स्वतः जिम्मेवारी संभाल लिया था तो आत्मीयता (वरीय अग्रज )  अपनी चादर फैलाकर सबको समेटना सिखा रहा था ।

आयोजन स्थल “आड्रे  हॉउस ” शहर के ठीक बीच । बंद कमरों के आयोजन से बिल्कुल जुदा , आड्रे  हॉउस के आँगननुमा खुले आहाते में बने एम्फीथिएटर पर बैठके कौशल (59 बैच ) ने जब जोगीरा गायन शुरू किया , फिर देखते ही देखते , हर उम्र अपने हिसाब के गुलाल में धीरे धीरे रंगता उतरता चढ़ता चला गया ! ना  किसी से बैर , ना किसी से रंज। ….. बस  श्याम के रंग में। तभी आत्मीयता ने रंग की एक और फुहार बरसाई । डॉ वंदना भाभीजी की सहमिति से डॉ  सुधीर (74 बैच ) ने मुस्कराते हुए कहा “मई के बाद (चुनाव बाद ) इसी ऑड्रे हॉउस के खुले एम्फीथिएटर पर एक मशहूर सरोद वादक का कार्यक्रम नोबा के लिए हमारी ओर से। 

रैनि चढ़ी रसूल की 

सो रंग मौला के हाथ 

जिसकी चुनर रंग दियो 

सो धन धन वा के  भाग 

आज रंग है। …. 

Report Courtesy : Naveen jee

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